Abstract: यादवेन्द्र ने यह सामंतवादी जीवन को बडे निकट से देखा है, यही कारण है कि उनके उपन्यासों में यथार्थिक सामंतवादी सभ्यता लक्षित होती है। राजस्थान, राजाओं, रजवाडों का प्रदेश होने के कारण सामंतवादी व्यवस्था को बडे गहरे ढंग से अपने परिवेश में छुपाए रखे हुए थे, और इन रजवाड़ो के सामाजिक परिवेश में सामंती जीवन की प्रत्येक विशेषता हमें अन्यायास ही दिखाई पड़ जाती है। यादवेन्द्र शर्मा ने अपने उपन्यासों मे सामंती संस्कृति पेश कर अपनी इन रचनाओं को आंचलिक यथार्थवादी, सामाजिक, एतिहासिक ग्रन्थ बना दिया है, इन रचनाओं को कोई भी संज्ञा दे दें, वहीं उचित प्रतीत होती है। यादवेन्द्र ने सामन्तवादी उपन्यासों मे सामंतवादी व्यवस्था के प्रत्येक बारीक से बारीक पहलु पर अपनी पैनी नज़र और समझ से कलम चलाई है। जैसे सामंती रहन-सहन, खान-पान, सामंती प्रथाएं, राजनैतिक षडयंत्र, विलासता, दास-दासियों की दैन्य दशा, कुप्रथाएं, सामन्तों की प्रवृतियां, आर्थिक शोषण आदि, यादवेन्द्र ने ‘दिया जला दिया बुझा‘, मिट्टी का कलंक, खम्मा अन्नदाता, ठकुराणी, पत्थर के आंसू, रक्त-कथा, ज्नानी उ्योडी, राजा-महाराजा, रानी महारानी, सिंहासन और हत्याएं, कथा एक नरक की, रंग महल, बूंद-बंूद रक्त, ढोलन कुंजकली, प्रतिशोध, रुप रक्त और तख़त, उपन्यास अपने परिवेश में इसी सामंती व्यवस्था को लिए हुए हैं।
वस्तुतः चन्द्र जी के उपन्यासों में सामंती परिवेश का जो यथार्थ चित्रण हुआ है। वह अत्यन्त मार्मिक, उत्तेजक एंव सामन्तों की विलासप्रियता का प्रमाण है, शोषण की क्ररुता, अत्याचार की प्रकाष्ठा, अनैतिक्ता, झूठी शान, ईष्र्या द्वेष, वैमनस्य आदि प्रवृतियां का निरुपण इस परिवेश का परिचायक हैं।