Vol. 2, Issue 5 (2016)
कबीर की काव्य-भाषा
Author(s): राजेश कुमार
Abstract: साहित्य, रचनाकार और समाज का अनिवार्य सम्बन्ध है। कबीर ने उसे पूरी ईमानदारी से निभाया। मध्यकाल के सामन्ती परिवेश में धार्मिक-सामाजिक पाखण्डों का जितना मुखर और सक्रिय विरोध उन्होंने किया, वह आज के लोकतान्त्रिक समय में भी असंभव है। हिन्दी साहित्य में ऐसा दुस्साहसिक व्यंग्यकार दूसरा कोई नहीं हुआ। कबीर के इस काम में काव्य-भाषा या काव्य-शिल्प की रुकावट कभी नहीं आई। दरअसल काव्यभाषा को उन्होंने हमेशा साधन ही माना, साध्य कभी नहीं। उनकी कविता में सामाजिक कुरीतियों के विरोध के बहाने काव्यतत्वों का समुचित प्रयोग तो मिलता है, उनका ढेर कहीं नहीं। इन सब के बावजूद रस, छंद, अलंकार आदि काव्यांगों का जितना औचित्यपूर्ण प्रयोग कबीर की कविता में मिलता है, वह उनके समकालीन ही नहीं पूर्ववर्ती और परवर्ती कवियों में भी नहीं मिलता।