Vol. 2, Issue 6 (2016)
कैवल्य का स्वरूप: योगसूत्र तथा अद्वैतवेदान्त के परिपेक्ष्य में
Author(s): भानुप्रताप सिंह बुन्देला, डाॅ0 उपेन्द्र बाबू खत्री, डाॅ0 अखिलेश कुमार सिंह
Abstract: कैवल्य का आशय समाधि की चरम अवस्था या उसके फल से है, तथा निर्वाण या मोक्ष इसके पर्यायवाची शब्द है। वेदान्त मे इस चरम अवस्था को आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान या मोक्ष कहा जाता है। पतंजलि जी के अनुसार कैवल्य ही योग का चरम लक्ष्य है। ‘‘कैवल्य का स्वरूप’’ वर्णन करते समय डाॅ0 साधना दौनेरिया जी ने अपने ग्रंथ पातंजलयोगसार मे बताया है, कि ‘‘केवल का अर्थ है, केवलता या अकेलापन अर्थात् आत्मा का त्रिगुणात्मक प्रकृति के विकारभूत स्थूल सूक्ष्म कारण आदि शरीरों और तज्जन्य दिव्य-अदिव्य उपभोगों से छूट कर अपने चिन्मात्र स्वरूप से अवस्थित हो जाना।’’ ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान, निर्वाण, मुक्ति या मोक्ष यह कैवल्य के ही समानार्थी है, क्योकि पतंजलि जी का योगसूत्र राजयोग का ग्रंथ है संभवतः इस कारण से वहाँ उन्होने अपने ग्रंथ मे ज्ञानयोग ग्रंथों (वेदान्त) के ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान शब्द का स्पष्ट वर्णन नही किया है। किन्तु दोनो ग्रंथों में द्रष्टा का अपने स्वरूप को जान लेना या अपने स्वरूप मे प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट वर्णन किया है। पतंजलि जी ने अपने ग्रंथ योगसूत्र में कैवल्य का वर्णन चार स्थानों पर किया है। (प.यो.सू. 1/3, 2/25, 3/55 व 4/34) जिसका नीचे विशेष रूप से वर्णन किया गया है।