Abstract: भारत के हिन्दु समाज में नारी का प्राचीन काल में महत्वपूर्ण स्थान था, वह उच्च शिक्षा की अधिकारिणी थी तथा उसे समाज में महत्वपूर्ण अधिकार भी प्रदान किये जाते थे परन्तु नारी की यह स्थिति अधिक समय तक न रह सकी और जैसे-जैसे भारत पर विदेशी आक्रमण हुए वैसे ही नारी की स्थिति शोचनीय हो गयी। समाज के किसी भी महत्वपूर्ण कार्य में उसका कोई भी योग नहीं रहता था। भारतीय संस्कृति में नारी, पुरुष की प्रेरणा, शक्ति और पूर्णता मानी गई है। पर मध्ययुग में उसका यह शिवरूप सुरक्षित न रह सका। विदेशी शक्तियों के आक्रमण से उसकी रक्षा आवश्यक हो गई तथा उसकी गणना कामिनी के रूप में होने लगी। घृणित विचारधाराओं ने नारी को पुरुष की बराबरी के पद से हटा दिया, उसकी स्वतंत्रता अपह्मत हो गई। गोस्वामी तुलसीदास जैसे समाज सुधारक कवि भी कहने लगे –
“ढोल, गँवार, शुद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी”।
कुसुम नारी को नरक का द्वार बतलाया जाने लगा। वह अपने ही घर में अनादृत होने लगी। आदि पुरुष मनु ने जिस नारी के लिए – “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”: कहा था उसकी स्थिति दयनीय हो गई। आधुनिक युग की स्वतंत्र नारी का कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया है। ऐसी दशा में वह भारतीय नारी न होकर विश्वनारी बन जाती है।