Abstract: संताल समाज एक गणतांत्रिक, प्रकिृति पुजक एवं सहयोगिता पर आधारित समाज है। इनकी मुख्य जीविका कृषि है। इस समाज के लोग गाॅवों में एकत्रवद्य होकर जीवन-यापन करते हैं । इनकी एक समाजिक व्यवस्था है, जिसे ष्मंा़झी पारगाना व्यवस्थाष् कहते हैं। इनके गाॅव के प्रधान ष्मंा़झीष् कहलाते हैं। वे समाजिक रुप से समस्त ग्रामिणों के पिता होते हैं इसिलिये वे ष्मंा़झीबाबाष् भी कहलाते हैं एवं उनके सहयोगी ष्पाराणिकष् कहलाते हैं। गाॅव के समस्त नवयुवक- नवयुवतियों को दिशा निर्देषित करने वाले ष्जगमंा़झीष्, संदेशवाहक ष्गोडेतष् एवं पुजारी ष्नायकेष् कहलाते हैं। इन सबको मंा़झी मोंडे़होड़़ भी कहते हैं। गाॅव के समस्त समाजिक कार्यो में मोंड़े़होड़ ;पंचोंद्ध की उपस्थिति अनिवार्य है जिनका संचालन ष्मंा़झीबाबाष् करतेेे हैं। मंा़झीबाबा की अनुपस्थिति में उनका कार्य उनके सहयोगी ष्पाराणिकष् करते हैं ।
संताली लोकसाहित्य सदियों से ही मौखिक रुप से निरंतर चली आ रही है। यह निम्न रुपों में मिलता है-लोकगीतों, लोककथा, बिनती, सिंगरा़ई, कुदुम, मेनकाथा; कहावते भेन्ताकाथा, पहेली इत्यादि। लोकगीत समाज के विभिन्न पुजा पर्व; बाहा, सोहराय, काराम एवं समाजिक अनुष्ठानों ;लांगड़़े, बापला, दा़ेङद्ध में किया जाता है। संताली समाज के विधि-विधान से सम्बंधित जितने भी बाते या नियम हैं उन सब नियमो को समाज के लोग लोकगीतों के धागों में पिरोकर अपने नयी पिड़ि़यो के लिये संभालकर रखे हुए हैं। इसके अलावा भी अनेक प्रकार के गीत मिलते हैं, जैसे-गा़़ड़़ी नाच-गान जो मकर संक्रान्ति के समय, दाॅसाय नाच-गान जो दुर्गा पुजा के समय किया जाता है। लोककथा दादा-दादी एवं नाना-नानियों केे द्वारा बच्चों को सुनाये जाते हैं। बिनती और सिंगराई दोनो ही कहानी और गीत का संयुक्त रुप है। बिनती में स्ंातालों के विश्वास अनुसार मानव सृजन के शुरु से लेकर उसका क्रमविकास इसी कहानी में रहती हंै। सिंगराई दो प्रकार के होते है-बीर सिंगरा़ई, साॅवता सिंगरा़ई। बीर सिंगरा़ई में यौन शिक्षा से सम्बंधित कहानी सह गीत होती है जिसका अनुष्ठान शिकार के समय सुतान टांडी में किया जाता है। साॅवता सिंगरा़ई में समाज के विधि-विधान से सम्बंधित कहानी सह गीत होती है जिसका अनुष्ठान विषेश अवसरों पर गाॅव में या विभिन्न मंचो पर किया जाता है। स्ंाताली समाज में लोकसाहित्य की चर्चा सिर्फ मनोरंजन के लिये ही नही किया जाता है, बल्कि मनोरंजन के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी इसी के माध्यम से दिया जाता है। गाॅव में या गाॅव के बाहर जहाॅ भी पुजा पर्व या मनोरंजक एवं शैक्षणिक अनुष्ठान होते है, जगमंा़झी का दायित्व होता है कि गाॅव के समस्त नवयुवक - नवयुवतियों को उस स्थान पर लेके जाना एवं अनुष्ठान समाप्त होने पर उन्हें सही सलामत घर वापस पहुॅचा देना हैं। इससे लोकसाहित्य भी जिवित रहती है, नवयुवक-नवयुवतियों को नैतिक शिक्षा भी मिल जाती है और साथ-साथ उनका मनोरंजन भी हो जाता है। दुखः की बात यह है कि आधुनिक युग मे लोकसाहित्य की चर्चा लुप्त होती जा रही है। आधुनिक युग के नवयुवक-नवयुवतियों मे नैतिक शिक्षा सिखने की इच्छा नही हो रही हैं, बच्चे दादा-दादी एवं नाना-नानियो से लोककथायें नही सुन रहे हैं। इस शोध पत्र में यही दर्शाने की कोशिश की गयी है कि स्ंाताली लोकसाहित्य, लोकगीत, लोककथा, बिनती, सिंगरा़ई, कुदुम, मेनकाथा, भेन्ताकाथा की विशेषता क्या है, समाज में लोकसाहित्य का महत्व क्या था। यहाॅ था इसलिये कहना पड़ रहा है क्योंकि वत्र्तमान मे इसका महत्व बहुत घट गया है। इस शोध पत्र में यह भी दर्शाने की कोशिश की गयी है कि स्ंाताली लोकसाहित्य आज के युग में अनदेखा क्यों किया जा रहा है, इसके लुप्त होने का कारण क्या है और इसको कैसे बचाया जा सकता है।