भारत में आरक्षित समाज दशा एवं दिशा: समसामयिक संदर्भ
राजकुमार लहरे
15 अगस्त 1947 को देश पहली बार आजादी मनाया। भारत लोकतांत्रिक गणतंत्र बना, तब सफल संचालन के लिए एक संविधान का निर्माण बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने समतामूलक सर्वांगीण विकास व संचालन हेतु किया। जहाॅ समाज में निचले स्तर में जीवनयापन करने वाले पिछड़ा, अनुसूचित जाति, जनजाति, आदिवासियों के लिए कुछ विशेष सुविधाओं का प्रावधान आरक्षित किया गया है। जिससे सदियों से गरीब, मजदूर, दलित-शोषितों के जीवन मुख्यधारा में आकर राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, साॅस्कृतिक, शैक्षिक, स्वास्थ्यगत आदि अवस्था और व्यवस्था में सकरात्मक बदलाव स्वयं ला सके।
परन्तु, आज भी 21 वीं सदी विज्ञान व संचार के युग में इन लोगों के हालात् में वांछित सुधार देखने को नहीं मिलता, इसके लिए कई तत्व जिम्मेदार हंै। जिसे समय के साथ दूर करना अनिवार्य है, जिससे देश में इन जरुरतमंद आरक्षित समाज के दशा व दिशा में सार्थक बदलाव के साथ-साथ विकास हो सके। वास्तव में, आरक्षण का ठीक क्रियांवयन आज तक नहीं होने के कारण देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, शील के अभाव तथा इनके प्रति अत्याचार, आर्थिक उदारीकरण के कारण समाज शोषक-शोषित वर्ग में बॅंटता हुआ, पूंजीवादी व्यवस्था हावी होता जा रहा है। कथित उच्च जातियाॅं आज भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं, तो कुछ उच्च विकसित दलित-शोषित ;ब्तपउपसंलमतद्ध समाज आरक्षण के खिलाफत करने लगे हैं। जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों में खतरा मंडराने लगा है। आरक्षण कोई दान, उपहार या अनुकंपा नहीं, वरन् यह एक मौलिक संविधान प्रावधानित अधिकार होकर समाज में उन लोगों को मिलना हीे चाहिए, जो जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म शहर तथा सुदूर ग्रामीण अंचल में रहकर ये आरक्षित वर्ग विकास के मुख्य धारा से आज भी कटे हुए हैं। तभी सबका विकास, सबके साथ संभव होगा ? यह एक विचारणीय प्रश्न है।