स्त्री-जीवन और संघर्ष: समकालीन उपन्यासों के आइने में
उमा देवी
स्त्री हर समाज, धर्म, जाति, वर्ग और कालखण्ड में पुरुषत्व के अहंकार की शिकार रही है। उसके सपने, संवेदनाएँ, योग्यताएँ अमानवीय तथा जर्जर मान्यताओं की जकड़न से दम तोड़ते रहे हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज ने सदियों से उसका शोषण और उत्पीड़न ही किया है। कालांतर में समाज और साहित्य में स्त्री-चिंतन का प्रादुर्भाव आधुनिक शिक्षा तथा विचारों की देन है। बीसवीं सदी स्त्री के लिए वरदान साबित हुई है। मन में जल रही मुक्ति के लौ को आधुनिक विचारों की हवा ने ज्वाला का रूप दिया। फलस्वरूप स्त्री-जीवन तथा स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन आये और यह परिवर्तन आज भी हो रहे हैं। समकालीन स्त्री उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में स्त्री के बदलते जीवन संदर्भ, बदलती मानसिकता तथा संघर्ष को विशेष स्थान दिया। यह अस्तित्व, अस्मिता और समता के लिए संघर्षरत स्त्री की कथा है। कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा, मृदुला गर्ग, प्रभा खेतान, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल जैसी अनेक लेखिकाओं ने स्त्री-चिंतन और स्त्री-लेखन को सार्थकता दी। इनके उपन्यासों में चित्रित स्त्री पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतंत्र, शिक्षित, आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, सबला तथा निर्णय क्षमता से युक्त स्त्री है। वह अपने कार्यों और विचारों से बदलते मूल्यों को अभिव्यक्त करती है। विवाह, मातृत्व जैसे मूल्यों पर सवाल उठा रही है। जहाँ एक ओर वह पुरुषसत्ता का विरोध करती है तो दूसरी ओर उन परंपराओं को स्वीकारती भी है जो मानवता के पोषक हैं। समकालीन स्त्री अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए सारे संबंधों को तिलांजलि देने तत्पर दिखती है। परिणामतः व्यक्ति-व्यक्ति संबंध, व्यक्ति-समाज संबंध, स्त्री-पुरुष संबंध नये अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। वहीं भूमंडलीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न बाजारवादी तथा उपभोक्तावादीसंस्कृति में स्त्री-शोषण के कई नए रूप भी उभरकर आ रहे हैं।