समकालीन कहानी में निश्चय ही नए विषयों की पकड़ है। यथार्थ के अनछुए आयाम हैं। महानगरों के जीवन के विचित्र छायारंग हैं। समकालीन कहानी में एक ओर परंपरा है तो दूसरी ओर आधुनिकता भी है। कहानी में समकालीनता की अवधारणा पर डॉ.पुष्पपाल सिंह अपना विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं कि, ‘‘1965 ई. को समस्त नवलेखन को एक नयी प्रस्थान भूमि माना जा सकता है, हिंदी में ‘समकालीन कहानी’ के रूप में परिवर्तन का यह महत्त्वपूर्ण मोड़ है’। समकालीन कहानी ने उच्चवर्ग की नारी के यथार्थ को भी देखा है, भौतिकता की चकाचौंध में सुखी दिखाई पड़ती है। उसकी व्यथा आम नारी से नितांत भिन्न है। आम नारी जीवन की आम जरूरतों के लिए भी संघर्ष करती है। जीवन भर संघर्ष करती है, जीती है और संघर्ष करती है। नियम, कायदे और कानून इसी के लिए हैं। इसके जन्म पर शिक्षित माता-पिता आज भी प्रसन्न नहीं होते. पुत्र की कामना ही करते हैं। समकालीन कहानी ने संबंधों की तलाश भी की है। उनके वे तेवर भी देखे हैं जो इंसान की भूख और हवस को व्यक्त करते हैं। उन्हें देखने-परखने की दृष्टी भी दी है। इन कहानियों की दुनिया न तो काल्पनिक है और न कृत्रिम। वह सहज, स्वाभाविक, गतिशील और मानवीय है। कुल मिलाकर समकालीन हिंदी कहानियों में नए समाज की वैचारिक आधारशीला तैयार करने की दिशा में अत्यंत जरूरी कदम है और साथ ही भारत की आधी आबादी के सच तक पहुँच कर अपने विशिष्ट संवेदनात्मक धरातल पर पहचान बनाने की ओर अग्रसर है।