भारतीय आध्यात्मिक साधना में मानसिक आरोग्य अर्थात् मनोदैहिक आरोग्यता एक आवश्यक शर्त रही है। इसे प्राप्त किए बिना आध्यात्मिक साधना संभव नहीं है। अतः आध्यात्मिक साधना के मार्ग में आगे बढ़ने वाले जिज्ञासुओं को सबसे पहले मनोदैहिक आरोग्य प्राप्त करना चाहिए। इस दिशा में भारतीय विचारकों चिंतकों का महत्वपूर्ण योगदान है। मनोदैहिक आरोग्य और चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय मनोवैज्ञानिकों के विचार लंबी सांस्कृतिक परंपराओं और हजारों सालों के अनुभवों पर आधारित है। उपनिषद ग्रंथों में मानव चेतना की दिशाओं की विस्तृत चर्चा की गई है। चित्त के स्वरूप और चित्तवृत्ति निरोध चित्त की दिशाओं आदि पर महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में व्यापक प्रकाश डाला है। अनेक प्राचीन पारंपरिक योग शास्त्रों, योग ग्रंथों में योग की महिमा और उपादेयता का वर्णन है। अनेक विद्वानों, हठयोगियों, ऋषि, मुनियों ने समय समय पर योग द्वारा मनोदैहिक आरोग्य एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य उत्कर्ष के संदर्भ में उल्लेखनीय योगदान दिया है। जिस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में विकास की नई ऊँचाइयों को प्राप्त कर एक ओर हम जहाँ मंगल ग्रह पर जीवन व अंतरिक्ष में सफलता की संभावनाओं को साकार करने के अथक प्रयास कर रहे हैं, पृथ्वी ग्रह पर वैश्विक जीवन, अनुकूलन की स्थायी परिस्थितियों को निर्मित करने की सतत कल्पनाएँ संजो रहे हैं, तदअनुरूप भावी योजनाएँ बना रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमें मानव चेतना के विकास, मानसिक चेतना की उन्नति अर्थात् मानसिक दक्षता के साथ आध्यात्मिक उत्कर्ष एवं अति मानस की ऊर्ध्वगामी चेतनशील संभावनाओं को साकार करने, मानवतावादी, सौदार्दपूर्ण, सद्भावनामय, अहिंसक, शांतिपूर्ण, प्रेम तथा करुणा से ओतप्रोत ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की जगत व्यवस्था को भी स्थापित करने में अपना पुरुषार्थ एवं कर्म कौशल दिखाना होगा। स्पष्ट है कि इसके लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक आरोग्य की प्राप्ति महत्वपूर्ण और अनिवार्य है। स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक चेतना जगाना आवश्यक है। अतः मानव जीवन में उत्पन्न विभिन्न मनोदैहिक रोगों को दूर करने के विभिन्न साधनों में से एक योग अत्यंत महत्वपूर्ण है। साधन के रूप् में योग का प्रयोग ऋषि-मुनि, योगीगण तथा विभिन्न देवताओं से लेकर साधारण मानव भी प्राचीनकाल से आज तक करते आये हैं।