साहित्य और इतिहास एक दूसरे के पूरक हैं परंतु उनमें सबसे बड़ा अंतर यह है कि जहां इतिहास भूतकालिक घटनाओं का तथ्यपरक संग्रहण है, वही साहित्य केवल तथ्यों का संग्रहण मात्र नहीं है। वह यथार्थ के साथ कल्पना के प्रयोग को भी समायोजित करता है। इतिहास व्याख्या करता है कि ‘क्या हुआ?’ वहीं साहित्य, क्या हुआ? के साथ क्या होना चाहिए था? क्या हो सकता था? या क्या होना चाहिए? इन सभी पहलुओं पर विस्तार से दृष्टि रख पाने में सक्षम है। साहित्य में विचार धाराओं का अपना एक अलग महत्व है परंतु कई आलोचक यह मानते हैं कि साहित्य और विचार धारा का गठबंधन साहित्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है। वे मानते हैं कि जब कोई साहित्यकार किसी विचार धारा से ऐसे जुड़ जाता है कि वह अतिवाद का शिकार हो जाता है तो उसकी सृजन क्षमता धीरे-धीरे कुत्सित होती जाती है और वह येन-केन प्रकारेण अपने एजेंडे को सहित्य के माध्यम से साधने का प्रयास करता है। जबकि कुछ विचारकों का मानना है कि यदि साहित्य दूध है तो विचार धारा चीनी के समान है। साहित्य में जब विचार धारा प्रवाहित होती है तो मीठे-मीठे दूध का आनंद मिलता है। साहित्य विचार धारा को बनाता है या विचार धारा साहित्य को बनाती है या यह दोनों मिलकर एक दूसरे को मजबूती प्रदान करते हैं या दोनों एक दूसरे को कमजोर करते हैं। ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर के लिए एक विश्लेषणात्मक अध्ययन आवश्यक हो जाता है।